“बरखा – बस,तुम आ जाओ !” रचियता/कवि : अवनि श्रीवास्तव
मदार जग गए हैं,
सुबह – सुबह ही,
घटा के स्वागत में,
सजा ली है थाली,
हल्दी, कुमकुम, चावल,
बूंदों का,प्रथम आगमन,
बरखा – बस,तुम आ जाओ !
हवा ने बुहार दिया है,
सारा आँगन, छत छज्जा,
बीन बीन कर,कंकड़ सारे,
छुपा दिए हैं, गमलों – में,
की उन नर्म,बसंती पैरों में,
गुंजाईश ही ना हो, किसी सिसक की,
तोरण,दीपक,चन्दन,
बूंदों का,प्रथम आगमन,
बरखा – बस,तुम आ जाओ !
खिडकीयों के पल्ले,
तक रहे हैं – क्षितिज को,
दूर से ही,भांप ले आमद,
बेटी,को दूर से ही करने को इशारा,
मंगल गान,मंगल आरती,मंगल घड़ी,
बूंदों का,प्रथम आगमन,
बरखा – बस,तुम आ जाओ !
मदार ( वानस्पतिक नाम : Calotropis gigantea) एक औषधीय पादप है। इसको मंदार’, आक, ‘अर्क’ और अकौआ भी कहते हैं। इसका वृक्ष छोटा और छत्तादार होता है। पत्ते बरगद के पत्तों समान मोटे होते हैं। हरे सफेदी लिये पत्ते पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं। इसका फूल सफेद छोटा छत्तादार होता है। फूल पर रंगीन चित्तियाँ होती हैं। फल आम के तुल्य होते हैं जिनमें रूई होती है। आक की शाखाओं में दूध निकलता है। वह दूध विष का काम देता है।